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साहित्य, संस्कृति के हृदय का आदर्श रूप है- प्रो निशा सिंह

सुल्तानपुर राणा प्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय सुल्तानपुर में बाबू धनंजय सिंह स्मृति व्याख्यानमाला के अंतर्गत अंग्रेजी  विषय मे एक व्याख्यान का आयोजन किया गया। जिसका विषय ' लिटरेचर एंड कल्चर ' था। कार्यक्रम का शुभारंभ मां सरस्वती और राणा प्रताप के चित्रों पर प्राचार्य प्रो डीके त्रिपाठी, पूर्व प्राचार्य प्रो एम पी सिंह बिशेन ,महाविद्यालय की उप प्राचार्या प्रो निशा सिंह, आइक्यूएसी के निदेशक इंद्रमणि कुमार द्वारा माल्यार्पण एवं दीप प्रज्ज्वलन से हुआ। तत्पश्चात मुख्य वक्ता के रूप में प्रो निशा सिंह ने विषय रखते हुए कहा कि साहित्य और संस्कृति के बीच अंतर्संबंध होना स्वाभाविक है, क्योंकि संस्कृति एक समग्रता है और समग्रता का सृजन करने वाला एक महत्त्वपर्ण घटक साहित्य है। वस्ततः संस्कति के निर्माण में साहित्य, ज्ञान, कला, नैतिकता, विधि-विधान एवं रीति-रिवाज आदि का विशिष्ट योगदान होता है। इस दृष्टि से साहित्य वह महत्त्वपूर्ण अवयव है, जिसका न सिर्फ संस्कृति के निर्माण में विशेष योगदान होता है, बल्कि यह संस्कृति को परिष्कृत भी करता है। यह कहना असंगत न होगा कि साहित्य उन अवयवों में से एक है, जो श्रेष्ठ संस्कृति का निर्माण करता है। संस्कृति को संस्कारों के घनीभूत स्वरूप के रूप में अभिहित किया जाता है। यदि संस्कार अच्छे होंगे, तो संस्कृति भी उन्नत होगी, समृद्धशाली और गौरवशाली होगी। जो संस्कार, संस्कृति के निर्धारक होते हैं, उनका प्रदाता कौन है? इस प्रश्न का सीधा-सा जवाब है ‘साहित्य’। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने यह अकारण नहीं कहा है कि सारे समाज को सुंदर बनाने की साधना का नाम साहित्य है। साहित्य का स्वरूप सुंदर और सत्य बताया गया है। यह अपने इस स्वरूप में हमें उच्च चिंतन की शक्ति प्रदान करता है, स्वाधीनता के भावों से भरता है, यह सौंदर्य का सार होता है, तो हमें सृजन के भी लिए प्रेरित करता है, इसमें जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश होता है. तो परहित की भावना भी इसमें निहित रहती है। इतना ही नहीं, साहित्य हमें सुरुचि संपन्न बनाता है, तो हमें चेतन और जागृत भी बनाता है। यह जहां हमें आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति प्रदान करता है, वहीं हममें शक्ति और गति भी उत्पन्न करता है। इसकी एक विशिष्टता यह भी है कि यह हमारे अंदर संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की दृष्टि उत्पन्न करता है। इन विविध स्तरों पर साहित्य हमें संस्कारित करता है, संस्कारवान बनाता है। साहित्य से मिलने वाले ये संस्कार ही घनीभूत होकर संस्कृति को निर्मित करते हैं। इस प्रकार साहित्य और संस्कृति के बीच एक अभिन्न संबंध स्थापित होता है।चूंकि साहित्य हर व्यक्ति की पहुंच में होता है, अतएव इसका प्रभाव भी व्यापक होता है। यह विजातीय समाजों में एकजुटता को बढ़ाकर उन्हें एक मंच पर लाता है और उस जन-संस्कृति का सूत्रपात करता है, जो प्रत्येक को आसानी से उपलब्ध होती है। सच तो यह है कि संस्कृति के विकास में न सिर्फ साहित्य का अमूल्य योगदान होता है, बल्कि यह श्रेष्ठ संस्कृति की आधार स्तंभ भी होता है। साहित्य संस्कृति तक पहुँचने और समझने के लिए एक उपकरण के रूप में कार्य करता है। भाषा संस्कृति द्वारा निर्धारित की जाती है। अंग्रेजी साहित्य के प्राचीन एवं अर्वाचीन काल कई आयामों में विभक्त किए जा सकते हैं। यह विभाजन केवल अध्ययन की सुविधा के लिए किया जाता है। इससे अंग्रेजी साहित्य प्रवाह को अक्षुण्णता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। प्राचीन युग के अंग्रेजी साहित्य के तीन स्पष्ट आयाम है- ऐंग्लो-सैक्सन, नार्मन विजय से चॉसर तक, चॉसर से अंग्रेजी पुनर्जागरण काल तक।  मिल्टन, हार्डी, इलियट, आर के नारायण की साहित्यिक रचनाओं से  हमें संस्कृति की झलक मिलती है। संस्कृति, साहित्य में प्रतिबिम्बित होती है। सारतः हम यह कह सकते हैं कि साहित्य और संस्कृति के मध्य गहरा अंतर्संबंध है, दोनों के बीच के बीच एक अटूट रिश्ता है। यह जहां श्रेष्ठ संस्कृतियों को गढ़ने वाला शिल्पकार है, वहीं कालातीत हो चुकी संस्कृतियों को जानने का महत्त्वपूर्ण स्रोत भी है। यह वह सांस्कृतिक अवयव है, जो संस्कृतियों के कालातीत हो जाने के बाद भी उन्हें जीवित बनाए रखता है। यह कहना असंगत न होगा कि साहित्य, संस्कृति के हृदय का आदर्श रूप है। कार्यक्रम का संचालन डॉ प्रभात श्रीवास्तव ने किया।  इस अवसर पर सेमिनार संयोजक डॉ आलोक पाण्डेय  और महाविद्यालय के समस्त शिक्षकगण और विद्यार्थी  मौजूद थे।

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